हिंदी (अस्तित्व का सवाल )


                                       मैं हिंदी हूँ     


 मास सितम्बर  हिंदी के लिए बड़ा सुखदाई मास होता है | अल्पकाल  के लिए ही सही पर लोगो को वह याद् तो है,
हिंदी की इस मरीचिका का कारण है समाज द्वारा "हिंदी दिवस" को , संरक्षण के मिथकीय प्रभावहीन पर्यावरण के अंतर्गामी पर्व के रूप में मनाना | हिंदी दिवस का यह हिंदी प्रेम प्रातः सूर्य की किरणों के साथ उदय होता है  और  संध्या को अस्त हो जाता  है | आज भी लोगो का हिंदी प्रेम आँखों  में  कम और सोशल मीडिया प्रोफाइल पर ज्यादा दिखाई देता है |
                   जहाँ हमारे राष्ट्रनिर्माताओ  ने हिंदी को देश के ओर- छोर तक संवाद और एकात्मकता का गौरव दिया था, वह आज उपभोक्तावादी आंधी में कही खो गया है ,और हिंदी अपना ओर- छोर तलाश करती भटक रही है |
                    आज हिंदी अकादमिक दुष्चक्र में भी अपनी आभा खो चुकी है , साथ ही भावी पीढ़ी का भी इससे  मोह भंग हो गया है ,और यही हिंदी को विस्मृति के गर्त में ले जा रहा है |
           

            विभिन्न  समस्याओ  से ग्रसित अस्तित्व   की तलाश करती  हिंदी ,अपनी सौतेली बहिन अंग्रेजी से आपने प्रीतम (भारतवासी ) से विरह की  वेदना का वर्णन  कुछ इस प्रकार करती है :-------
   
    बातें करलो मुझसे भी मुझमे जो बात बाकि है  ,
    नहीं हुआ पश्चिम में सूर्य उदय , मेरी रात बाकि है |
          मैं नज्मो में उलझी रही ,उर्दू नमाज हो गई ,
          बहिन मेरी झोंके सी आई और समाज हो गई |
    बहिन  मेरी  प्रीतम को यु  न सताओ , काटो में गुलाब सा उलझ रहा  है ,
    प्रयास मैने बहुत किये , मेरा रिस्ता न सुलझ रहा है |
           बहिन बात तो बताओ , जो तुम प्रीतम को भा गई ,
            जुबाँ की बात और थी ह्रदय में समा गई |
    में तो विरह की राहो में भटक रही हू,
    फूल सी तो हू पर काटो में अटक रही हू |
            क्षेत्र मेरा था पर जीत तुम्हारी हो गई ,
            पलके बिछाए मै थी , साजन से प्रीत तुम्हारी हो गई |
    अब प्रीतम भी मुझे देख न जाने क्यों शर्मिंदा है ,
    मन मेरा विचार करे उसका जमीर तो जिन्दा है |

               मुबारक हो बहिन ,देखूँ जीत का कारवाँ,
                                 कहाँ तक जाता है ,
              पलके तो मेरी अब भी बिछी है राहों मे,
               न जाने प्रीतम कब लौट के आता है |||||||
                                            (नोमेन्द्र  राहंगडाले)




   अंग्रेजी की लोकप्रियता (एक सकारात्मक पहलु )


समाज सदैव नव विचारो की ओर आकर्षित हुआ है ,वर्तमान वैश्विक स्तिथि में नव विचारो की भरमार है, और इनकी  प्राप्ति "वैश्विक ग्राम " के सिद्धांत और भी आसान हो गई है |आज विज्ञानप्रौद्योगिकी से लेकर साहित्य के भी विभिन्न स्वरुप है, जो विभिन क्षेत्रो में प्राप्त  होते है | और व्यक्तित्व विकास के लिए इनका अध्ययन भी आवश्यक है , और इस हेतु विभिन्न  भाषाओ का ज्ञान भी आवश्यक है |
           यह सही है ,परन्तु इस भीड़ में हिंदी को गुमनाम होने से बचाना भी हमारा परम्  कर्त्तव्य है |

  हिंदी  क्यों जरुरी (आस्तित्व का सवाल  )


  किसी  राष्ट्र या समाज में संजीवनी शक्ति भरने वाला साहित्य ही है , अतः यह सर्वतोभावेन संरक्षणीय है |
                               सब कुछ  खोकर भी यदि हम इसे बचाएंगे  रहेंगे ,तो इसी के द्वारा हम सब कुछ पा सकते है |हिंदी साहित्य मानव जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं का इतना स्पष्ट चित्रण करता है , जो व्यक्तित्व के विकास हेतु आवश्यक है |
                       हिंदी के कुछ साहित्यकार प्रेमचंद ,परसाई ,निराला ,सामाजिक समस्याओंके प्रति अलग ही दृष्टिकोण देते है ,जो पाठक के मस्तिष्क में प्रश्न छोड़ जाते है ,और उनकी तलाश में पाठक का व्यक्तित्व विकास कब हो जाता है ,पता ही नहीं चलता है | 

  निष्कर्ष : 

आज का युग वह युग है जिसे किसी भी प्रकार का सीमांकन बिलकुल भी नहीं भाता है ,आज हर छण कुछ नया खोज लिया जाता है ,और सुबह खोजी वस्तु संध्या   तक कब पुरानी हो जाती है पता ही नहीं चलता ,अतः आज हमे जागरूक होने की आवश्यकता है ,और विभिन्नता  को स्वीकार करने की जरुरत है |
                                                  परन्तु अपनी पहचान से समझौता करके नहीं ,हम सदैव प्रयास करे कि हमारी पहचान अलग बनी रहे ,और यह लोगो को प्रभावित करती रहे ,और इस हेतु हिंदी का सशक्तिकरण आवश्यक है |और यह हमारा कर्त्तव्य भी है |
   
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